Gulab Khandelwal

Gulab Khandelwal was an Indian poet who wrote poetry in different forms -- including sonnets, rubais (quatrains), dohas (couplets), odes,elegies, lyrical balladsepics, poetic dramas, ghazals and masnavi -- with equal felicity. He even introduced some of these forms into Hindi literature and, apart from Hindi, has also written poetry in Urdu and English. The span of his poetic language touches upon Sanskrit on one end and Urdu on the other.

Gulab Khandelwal was born in the town of Navalgarh, Rajasthan (India). He spent his childhood and received his early education in Gaya, Bihar. He received his undergraduate education at the Banaras Hindu University, graduating with a BA in 1943. While in Banaras, he came into contact with the great luminaries of Hindi literature including Suryakant Tripathi 'Nirala', Maithili Sharan Gupt, Ayodhya Prasad Upadhyay 'Hariaudh', Harivansh Rai Bachchan and Bedhab Banarasi. He also met critics such as Pt. Ramchandra Shukla, Nand Dulare Bajpai and Pt. ShriNarayan Chaturvedi. Further early influences include scholars such as Dr. Sampurnanand, Kamlapati Tripathi, and Sitaram Chaturvedi.

Gulab Khandelwal started writing poetry at an early age. His first volume of poems was published in 1941 with a preface by Suryakant Tripathi 'Nirala'. Over the course of his life, he published 73 books, including more than 50 volumes of poems and 2 dramatic works in prose. Some of these have been digitized by the Digital Library of India. Six of his books received awards from the Uttar Pradesh government and one received an award from the Bihar government. Some of his books were selected as textbooks for colleges in Uttar Pradesh and Bihar, with Alok Vritt used in the Intermediate Board in Uttar Pradesh since 1976.

Mahakavi Gulab translated some of his poems in English in Gulab Khandelwal: Selected Poems, which was published in 1986 with a preface by Dr. Karan Singh, former governor of Kashmir. In recognition of this and his achievements over a long literary career, he was awarded honorary citizenship by the city of Baltimore on 13th July, 1985. Furthermore, both the mayor of Baltimore and the governor of Maryland declared this day "Hindi Day".

In addition to being the president of Archana, a Kolkata-based literary society founded in the 1950s, he was also variously the president of the Akhil Bhartiya Hindi Sahitya Sammelan (Prayag, India) for 18 years, president of the Bharati Parishad (an organisation founded by Mahamana Madan Mohan Malaviya), he was a senior member of the editorial board of Vishwa, a literary magazine by the International Hindi Association, and he was the president of the International Hindi Association.

Mahakavi Gulab lived mostly in the USA but visited India every year. Until his death, he was active in his literary pursuits. In addition to his involvement in Indian literary organizations, he also worked extensively with Indian organizations in the United States. He presided over Vishwa Hindi Sammelan (an organization which strives towards the firm establishment of the Hindi language) in New York. At the age of 82, he wrote his auto-biography ज़िन्दगी है कोई किताब नहीं (Zindagi Hai Koi Kitaab Nahi).

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Selected Poems

ग़ज़ल
कुछ हम भी लिख गये हैं तुम्हारी किताब में
गंगा के जल को ढाल न देना शराब में
हमसे तो ज़िंदगी की कहानी न बन सकी
सादे ही रह गये सभी पन्ने किताब में
दुनिया ने था किया कभी छोटा सा एक सवाल
हमने तो ज़िंदगी ही लुटा दी जवाब में
लेते न मुँह जो फेर हमारी तरफ़ से आप
कुछ ख़ूबियाँ भी देखते ख़ानाख़राब में
कुछ बात है कि आपको आया है आज प्यार
देखा नहीं था ज्वार यों मोती के आब में
हमने ग़ज़ल का और भी गौरव बढ़ा दिया
रंगत नयी तरह की जो भर दी गुलाब में

यह ज़िन्दगी तो कट गयी काँटों की डाल में
रखते हो अब गुलाब को सोने के थाल में
कुछ तो है बेबसी कि न आती है मौत भी
मछली तड़प रही है मछेरे के जाल में
साज़ों को ज़िन्दगी के बिखरना नहीं था यों
कुछ तो हुई थी भूल किसी की सँभाल में 
आहट तो उनकी आयी पर आँखें हुईं न चार
रातें हमारी कट गयीं ऐसे ही हाल में
बँधकर रही न डाल से ख़ुशबू गुलाब की
कोयल न कूकती कभी सुर और ताल में

कभी बेसुधी में रुके नहीं, कभी भीड़ देखके डर गये
तेरा प्यार दिल में लिए भी हम, तेरे सामने से गुज़र गये
तू भले ही रात न था कहीं, वो वहम भी था तो बुरा नहीं
कि कभी हमारे क़रीब ही, तेरे पाँव आके ठहर गये
कभी, हमसफ़र! यहाँ हम न हों, तेरी चितवनें भी ये नम न हों
ये अदाएँ प्यार की कम न हों, कभी हम भी जिनमें सँवर गये
हमें दोस्तों ने भुला दिया, हमें वक़्त ने भी दगा दिया
उन्हें ज़िन्दगी ने मिटा दिया, जो निशान दिल में उभर गये
वे भले ही हँस के भी मिल रहे, न भरे वे प्यार के दिल रहे
जो कभी थे होंठ पे खिल रहे,वे गुलाब आज किधर गये  

दिल में ये प्यार के वहम क्या हैं!
तू ही बतला कि तेरे हम क्या हैं
जब न कोई लगाव है हमसे
ये इशारे क़दम-क़दम क्या हैं!
क्या करें, दिल किसी पे जो आ जाय!
जानते हम भी, ये भरम क्या हैं
उनके वादों पे जिये जाते हैं
ये भी एहसान उनके कम क्या हैं!
उनके रंगों में मिल गये हैं गुलाब
अब किसे क्या बताएँ, हम क्या हैं !

 

प्यार दिल में न अगर था तो बुलाया क्यों था!
हमसे मिलने का ख़याल आपको आया क्यों था!
जब नज़र मोड़ के चुपके से चले जाना था
दो घड़ी के लिये सीने से लगाया क्यों था!
हमको आँखें भी उठाने की मनाही थी अगर
आपने ख़ुद को सितारों से सजाया क्यों था!
सर पटकती है शमा लाश पे परवाने की
कोई पूछो भी तो उससे कि जलाया क्यों था
हमने माना कि बसे आपके दिल में थे गुलाब
आपने उनको मगर इतना सताया क्यों था!

सभी तरफ़ है अँधेरा, कहीं भी कोई नहीं
भरम ही मन का है मेरा, कहीं भी कोई नहीं
नहीं निशान भी तेरा, कहीं भी कोई नहीं
घिरा है घेरे में घेरा, कहीं भी कोई नहीं
वहाँ पहाड़ की घाटी से, आधी रात के बाद
ये किसने फिर मुझे टेरा ! कहीं भी कोई नहीं
चले है खोजने किसको ये खोजनेवाले !
पता तो बस यही तेरा--'कहीं भी कोई नहीं'
कहाँ है रोशनी तारों की, चाँद, सूरज की
अँधेरा और अँधेरा, कहीं भी कोई नहीं
कहाँ जुड़ी थीं सभाएँ? कहाँ थे उनसे मिले?
कहाँ था अपना बसेरा? कहीं भी कोई नहीं
नहीं रहे हैं वही वह कि मैं ही मैं न रहा !
न साँझ वह न सवेरा, कहीं भी कोई नहीं 
भले ही साँप यह रस्सी में आ रहा है नज़र
न बीन है, न सँपेरा, कहीं भी कोई नहीं
अभी तो छाँह-सी उतरी थी एक दिल में, मगर
नज़र को मैंने जो फेरा, कहीं भी कोई नहीं
न बाग़ है, नहीं भौंरे, न तितलियाँ, न गुलाब
उठा वसंत का डेरा, कहीं भी कोई नहीं

कविता 

नहीं विराम लिया है
ज्यों-ज्यों दिवस ढल रहा मैंने चलना तेज़ किया है

तम की इस अनंत घाटी में
क्या यदि तेज़ चले या धीमे!
बस पदचिन्ह एक धरती में
मैंने बना दिया है 

ज्ञान भक्ति की लेकर गागर
युग-युग से जो बैठे पथ पर
श्रद्धा की अंजलि फैलाकर
उनसे अमृत पिया है

महाशून्य में लय भी होकर
क्या न बचा लूँगा सब खोकर
मैंने जो हँसकर या रोकर
जीवन यहाँ जिया है

अब तो चलने के दिन आये
सब को राम-राम करते हैं दोनों हाथ उठाये

घिरता है तूफान, न जाने किसे कहाँ ले जाये !
यही बहुत है, इतने दिन हम साथ-साथ रह पाये

नदी-नाव संयोग हुआ था, अपने थे न पराये
प्रेम-पाश में बाँध किसी ने ये सब नाच नचाये

समझे जो जिसका जी चाहे, कहे जिसे जो भाये 
निंदा-स्तुति से परे आज हम, यह जग क्या भरमाये !

 हों गुलाब में रंग न अब, वे गये, जहाँ से आये
पर उसकी ख़ुशबू न मिटेगी, कोई लाख मिटाये 
काल का सिरहाना, ओढ़े चादर इतिहास की
सो रहा हूँ मैं भू पर वाल्मीकि-व्यास की
कभी तो घिरे महान कवियों से सुधीजन को
आयेगी सुध इस भारती के मूक दास की
...

काव्य में दूँ सीख,यह तो दावा नहीं मेरा है
शिक्षक और होंगे, मुझे आप तम ने घेरा है
बात बस यही है, मैंने व्यथा निज स्वरों में भर
गुण गाये उसके जो इस सृष्टि का चितेरा है
.....

मिलके बिछुड़े जो, उनका गम हूँ मैं
सावन की घटाओं से नहीं कम हूँ मैं
गाती हो जिसे विरहिन कोई पिछली रात
उस दर्दभरे गीत का सरगम हूँ मैं
....

इसी मार्ग से सब गये, क्या राजा, क्या रंक !
क्या तू ही सुविशेष है, काल न मारे डंक !

भक्ति-गीत

१.

 सब कुछ कृष्णार्पणम्, सब कुछ कृष्णार्पणम् 
ज्ञान    -ध्यान, शक्ति    -श्रम, राग    -द्वेष, मोह    -भ्रम 
दाह     दीनता     अहम् सब कुछ कृष्णार्पणम् 

 

भोग-योग, यम-नियम श्रेय-प्रेय, प्रेयतम 
लाभ-हानि, सम-विषम सब कुछ कृष्णार्पणम् 

 

भव-विभव, अधिक कि कम शिव-अशिव, शुभाशुभम्  
प्राप्त जो अगम-सुगम सब कुछ कृष्णार्पणम् 

 

सत्, असत्, अहम्, इदम् वृत्ति उच्च या अधम 
सुंदरम्, असुन्दरम् सब कुछ कृष्णार्पणम् 

 

व्यर्थ जन्म-मृत्यु-क्रम ईति-भीति, त्रास-तम  
रोग-शोक, दुख चरम सब कुछ कृष्णार्पणम् 

 

भेद बुद्धि के अलम् जप-तप आगम-निगम 
मन्त्र अब यही परम सब कुछ कृष्णार्पणम् 

 

पाँव क्यों न जायँ थम मार्ग चल रहा स्वयम् 
मुक्त, आज मुक्त हम सब कुछ कृष्णार्पणम् 

२.

कहाँ है ओ अनंत के वासी?
तू मन में है फिर भी आँखें हैं दर्शन की प्यासी

 

प्रेम-भक्ति के तार भले ही मैंने मन में बाँधे
रह-रहकर उठ रहे विवादी सुर भी उनसे आधे
नयनों के सम्मुख दिखती है मुझको अंध गुफा-सी

 

कितनी बार परस तेरा मैंने मस्तक पर पाया
कितनी बार डूबते मुझको तू तट पर ले आया
क्यों फिर भी हटती न हटाये चिंता की गलफाँसी?

 

नियम-नियामक दोनों तू नियमों का हो दृढ पालक
पर न नियम क्या बने क्षमा के, भूल करे यदि बालक
गिरते-पड़ते भी जो तुझ तक आने का अभिलाषी?

 

कहाँ है ओ अनंत के वासी?
तू मन में है फिर भी आँखें हैं दर्शन की प्यासी

 

३.

 कौन-सा रूप ध्यान में लाऊँ! 
इतने वेश बदलते स्वामी! किस पर नयन टिकाऊँ!

 

कभी यशोदा का आँचल धर
माँग रहे माखन रो-रोकर
कभी कुंज में यमुना-तट पर वेणु बजाते पाऊँ

 

कभी चुराकर माखन खायें
कभी विराट रूप दिखलायें
शेष न होंगी वे लीलायें जीवन भर भी गाऊँ

 

किन्तु प्रेम, प्रभु! कैसा साधा!
ब्रज का मिलन रह गया आधा!
सिसक रही है विरहिन राधा कैसे उसे मनाऊँ?

 

कौन-सा रूप ध्यान में लाऊँ!
इतने वेश बदलते स्वामी! किस पर नयन टिकाऊँ!

४.

गाते रामायण मृदु स्वर में
जब प्रभु ने यह सुना पधारे दो मुनि शिष्य नगर में

मन में गयी अजान पुलक भर
कहा "उन्हें ले आओ सादर
सुने अयोध्या के नारी नर कथा राज-परिसर में "

पर, क्षण में ही पड़ी दिखाई  
सीता की मुख छवि मुरझाई
अंतिम विदा याद हो आई, हूक उठी अंतर में

कहा जिसे न कभी जग सम्मुख 
छिप न सका मारुति से वह दुःख
बोले "लंका-जय का क्या सुख! माँ जब रही न घर में "

 

गाते रामायण मृदु स्वर में
जब प्रभु ने यह सुना पधारे दो मुनि शिष्य नगर में 

All text and poetry provided by the Khandelwal Family.